सेनारी नरसंहार: 18 मार्च 1999 की रात बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी गांव में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के करीब 1000 उग्रवादियों ने हमला कर 34 भूमिहार जाति के निर्दोष लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी। धारदार हथियारों से गांव के पुरुषों को घर से बाहर खींचकर गला रेत दिया गया। यह हमला जातीय टकराव और बदले की भावना का परिणाम था। न्यायिक प्रक्रिया के बाद भी अधिकांश आरोपी बरी हो गए, जिससे यह नरसंहार आज भी न्याय की विफलता का प्रतीक बना हुआ है।
सेनारी नरसंहार बिहार के जातीय संघर्ष और सामाजिक विद्वेष की सबसे भयावह घटनाओं में से एक माना जाता है, जिसने 1999 में पूरे राज्य को हिला कर रख दिया था। यह हत्याकांड जहानाबाद जिले के सेनारी गांव में 18 मार्च की रात को घटित हुआ, जब नक्सली संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के करीब 1000 से अधिक हथियारबंद उग्रवादी गांव में घुस आए। इन लोगों ने काले कपड़े पहन रखे थे और उनके हाथों में राइफलें, कुल्हाड़ियाँ, हंसिए जैसे धारदार हथियार थे। हमलावरों ने गांव को चारों ओर से घेर लिया और स्थानीय जानकारी के आधार पर भूमिहार जाति के लोगों के घरों को निशाना बनाया।
हमलावरों ने पहले घरों से पुरुषों को बाहर घसीटा, फिर महिलाओं और बच्चों को भी बाहर खड़ा कर दिया गया। इसके बाद परिजनों की आंखों के सामने ही पुरुषों का गला रेत दिया गया। यह निर्मम हत्या गांव के मंदिर के सामने सार्वजनिक रूप से की गई ताकि पूरे इलाके में डर और दहशत का माहौल बन सके। इस दौरान 34 से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, मारे गए लोगों में से अधिकांश का रणवीर सेना से कोई सीधा संबंध नहीं था, लेकिन उन्हें सिर्फ भूमिहार जाति से होने के कारण निशाना बनाया गया।
यह नरसंहार केवल जातीय बदले की भावना का परिणाम नहीं था, बल्कि यह उस दौर की सामाजिक असमानता, वर्ग संघर्ष और राजनीतिक हिंसा का भी प्रतिबिंब था। यह घटना लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला नरसंहार की कड़ी में एक और जवाबी हमला थी, जो लगातार हो रहे हमलों और प्रतिशोध की राजनीति से उपजा था। दलितों और पिछड़े वर्गों के बीच नक्सली समर्थन के चलते, और उच्च जातियों द्वारा संगठित रणवीर सेना के प्रभाव के विरोध में, इस प्रकार के हमलों की एक भयावह श्रृंखला बिहार में देखी गई।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और अन्य मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों में बताया गया कि सेनारी में मारे गए लोग निर्दोष थे और वे किसी सशस्त्र संगठन से जुड़े नहीं थे। इसके बावजूद, न्यायिक प्रक्रिया में विफलता इस नरसंहार के पीड़ितों के जख्मों को और गहरा कर गई, क्योंकि वर्षों चले मुकदमे के बाद भी अधिकांश आरोपी बरी कर दिए गए।
सेनारी नरसंहार न केवल एक हत्याकांड था, बल्कि यह उस समय बिहार में व्याप्त कानून व्यवस्था की स्थिति, प्रशासनिक विफलता और जातीय-राजनीतिक टकराव की एक दर्दनाक मिसाल भी बना। यह घटना आज भी राज्य के सामूहिक स्मृति में एक काले अध्याय की तरह दर्ज है, जो बताती है कि जब न्याय और सामाजिक संतुलन टूटते हैं, तो उसका परिणाम कितना भीषण हो सकता है।
COMMENTS